थाली में रखी बिरयानी ठंडी,
चावल में घुल गई खुशबू मंदी।
सोचा था गरम खा लूँगा,
पर आज मन नहीं है।

किताबें खुलीं, पन्ने उलझे,
कलम भी ताक रही तकिये से,
लिखने का जोश तो आया था,
पर आज मन नहीं है।

कोने में पड़े कपड़े शिकन में,
मोज़े भी ढूँढ़ रहे संग अपने,
सोचा था सहेजूँ, तह कर दूँ,
पर आज मन नहीं है।

बात अधूरी, मैसेज अधूरे,
जवाब किसी को भेज न पाए,
दिल कहा बहुत था बोलेंगे,
पर आज मन नहीं है।

रोज़ के कुछ बचे हुए हिस्से,
कल पर टिके हुए किस्से,
जाने कब तक सड़ते रहेंगे,
क्योंकि आज फिर मन नहीं है।